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जिस पल मैं अपने सफर में रुका,
कुछ पैर में मेरे इक कंकड़ सा चुभा,
रुका तो देखा, चारो ओर नजर घुमाई,
कोई और नही दिखा, बस मैं और मेरी तनहाई,
वो चांद भी रुक गया, जो पीछा कर रहा था,
मुझे एहसास ही नही था, मैं अकेला चल रहा था,
जो पेड़ हवा से झूम रहे थे,थक गए थे,














जो तारे मुझे राह बता रहे थे, वो भी रुक गए थे,
तब उस कंकड़ ने मुझे पुकारा, अपने पास बुलाया,
पहली बार किसी ने मुझे अपने आप से मिलाया,
आंख मिलाकर उसने कहा, रुक ही गए हो तो सुनो,
रुकना है या चलना है तुम खुद चुनो,
रुकने पर तो ये पेड़, चांद तारे भी तुम्हे हासिल नहीं,
जिसकी खोज में ये सफर है, कहीं तुम खुद ही तो इसकी मंजिल नहीं,
हां, शायद वो कंकड़ नहीं मेरा वजूद ही था,
चलने पर तो था ही, मेरे रुकने के बावजूद भी था।

~ राम श्रीवास्तव

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