एक और हार | Ek aur haar
एक और हार
जीवन रूपी समर से आज फिर लौटा हूं हारकर
वापस रख लाया अपने शस्त्र संभालकर
वापस रख लाया अपने शस्त्र संभालकर
धार उनकी कुछ पैनी न जान पड़ती है
चोट उनकी कुछ गहरी न जान पड़ती है
बेताब होकर समर पथ पर बिन बुलाए मैं चला
बिन कमर कसकर युद्ध लड़ने अज्ञात निर्बल मैं चला
रास्ते में खाट डाले है बवंडर था खड़ा
बीच में से ही मुझको घर भागने था खड़ा
मैं नासमझ नादान डटकर बेतहाशा भिड़ गया
तूफान को आंधी समझकर बिन विचारे भिड़ गया
पिट पिटाकर बच बचाकर जैसे तैसे मैं बचा
फड़फड़ाकर छटपटाकर कैसे कैसे मैं बचा
जान पे आती समझकर, पैर उल्टे लौट आया
फिर निराशा डर कमाकर, पैर उल्टे लौट आया
छत पर खड़ा बेआस बेबस, इस भयानक रात में
दामिनी, श्यामल घटा, सुनसान गहरी रात में
अचानक,
सरसराती शीतमय एहसास लेकर वो चली
फिर सहर की आस लेकर, महमहाती वो चली
उसके पावन स्पर्श से शादहाली छा गई
संघर्ष की शक्ति मिली, फिर से आशा छा गई
फिर सुबह उठकर दीप जलाना होगा
फिर समर में डटकर धनुष चलाना होगा
ना थका जब हारकर हर बार भी 'मुसाफिर', हार ने भी हारकर रस्ता बदल लिया
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